कभी बिहार की सियासत में शीर्ष पर रह चुके हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के प्रमुख जीतनराम मांझी की नाव फिर हिचकोले खाने लगी है। सियासी मित्रों पर पुत्र को तरजीह देने और साथियों के सपने पूरे करने में असमर्थता के कारण कुनबे के कल-पुर्जे ढीले होने लगे हैं। कुछ साथी साथ छोड़ चुके हैं तो कुछ लाइन में हैं। किनारों का पता नहीं है और मंझधार में बार-बार इधर-उधर करने से मांझी की पतवार भी कमजोर होती जा रही है।
लोकसभा चुनाव में सम्मानजनक सीटों के लिए मचल रहे मांझी ने अबतक रांची जाकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद से दर्जन भर मुलाकात की है। लालू की गैर मौजूदगी में पार्टीकी कमान संभाल रहे तेजस्वी यादव से भी फरियाद की है। कांग्रेस के दरवाजे पर भी मत्था टेक चुके हैं। फिर भी किनारा मिलता नहीं दिख रहा है।
तमाम कवायद के बावजूद महागठबंधन में जीतनराम मांझी के लिए सिर्फ एक सीट की पेशकश की जा रही है। उनके सिरदर्द की सबसे बड़ी वजह यही है। दरअसल उनके साथ तीन तरह की दिक्कतें हैं। पहली, वे खुद को बड़े खेवनहार मानते-समझते और दिखाते हैं। दूसरी, अपनी नाव की पतवार किसी और को देना नहीं चाहते हैं। तीसरी, उनकी अगली चाल क्या होगी, नाव पर साथ बैठे साथियों को भी अहसास नहीं होने देते। रहस्य-रोमांच बनाए रखकर मंझधार में तूफान का मजा अकेले लेना चाहते हैं। फंसने पर पतवार को भी मजबूती से नहीं पकड़ते। खुद को हालात पर छोड़ देते हैं। इस कारणों से मांझी एक बार फिर बुरी तरह घिरे हैं।
पिछला विधानसभा चुनाव उन्होंने राजग के साथ तालमेल कर लड़ा। 23 सीटों में से 22 वह हार गए। यहां तक कि वे खुद दो विधानसभा क्षेत्रों से प्रत्याशी बने, जिनमें से भी एक हार गए। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजद-कांग्रेस और जदयू की सरकार बनी, किंतु राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के साथ होने के चलते मांझी को विपक्ष में बैठना पड़ा। बाद में वे चाहते थे कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उन्हें राज्यसभा सदस्य बना दें। इसी दौरान महागठबंधन से जदयू के किनारा करने के बाद मांझी को राजग छोडऩे का बहाना मिल गया और पुत्र संतोष सुमन को एमएलसी बनाने की शर्त पर उन्होंने लालू का साथ देना अपने कुनबे के भविष्य के लिए ज्यादा बेहतर समझा। अब महागठबंधन में भी उनके मनमाफिक नहीं हो रहा है। उन्हें जानने वाले बताते हैं कि अपनी अलग पार्टी नहीं होती तो मांझी शायद फिर परिवर्तन की ओर प्रस्थान कर जाते। किंतु इस बार विवशता है। अब वह पहले की तरह अकेले नहीं रह गए हैं कि जब मन किया रास्ता बदल लिया। उनके साथ पूरा कुनबा है।
महागठबंधन में मांझी के मन डोलने की प्रमुख वजह है उन्हें उम्मीद से कम सीटें देने का प्रस्ताव। अपनी पार्टी के लिए मांझी प्रत्यक्ष तौर पर कांग्र्रेस और रालोसपा से एक सीट ज्यादा मांग रहे हैं, लेकिन उनके करीबियों का मानना है कि किसी भी हाल में उन्हें तीन सीट चाहिए। इससे कम सीटें मिलने पर महागठबंधन में मांझी का टिके रहना संभव नहीं होगा। अपनी मुराद पूरी करने के लिए मांझी दिल्ली से रांची तक सहयोगी दलों के प्रमुख नेताओं पर दबाव बना रखा है। लालू से कई मुलाकात हो चुकी है। शनिवार को मिलने के बाद मांझी अभी भी रांची में ही जमे हुए हैं। वहां से दिल्ली के लिए प्रस्थान करना है, जहां अहमद पटेल एवं कांग्र्रेस के अन्य वरिष्ठ नेताओं से दो-टूक बात कर सकते हैं। सहयोगी दलों को मांझी ने अल्टीमेटम भी दे रखा है। दो-चार दिनों में सम्मानजनक सीटें नहीं मिलने पर उनका मन किसी भी तरफ झुक सकता है।
लालू से मुलाकात के बाद मांझी की एक विधायक वाली पार्टी ने जिस तरह से 27 विधायकों वाली कांग्र्रेस से ज्यादा सीटों के लिए सक्रिय है उससे साफ जाहिर है कि महागठबंधन में दबाव की राजनीति चरम पर है। लालू नहीं चाहते हैं कि कांग्र्रेस को हैसियत से ज्यादा सीटें दी जाए। मांझी भी लालू की मंशा को समझ रहे हैं कि उन्हें सम्मानजनक सीटें तभी नसीब होंगी जब कांग्र्रेस को किसी भी हाल में 10 से कम पर रोक दिया जाए। मांझी शायद इसीलिए बिहार में कांग्र्रेस को बार-बार हैसियत दिखाते हैं। खुद के लिए उससे ज्यादा सीटों की मांग करते हैं। रांची में लालू से ताजा मुलाकात के बाद मांझी ने तेजस्वी यादव को क्लीनचिट दिया और सीट बंटवारे में पेच के लिए कांग्रेस को जिम्मेवार बताया।